केंद्र सरकार का बड़ा फैसला- ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को कैबिनेट की मंजूरी

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केंद्र सरकार का बड़ा फैसला- ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को कैबिनेट की मंजूरी

लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करवाने की राह आसान

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी कमेटी की रिपोर्ट पर निर्णय

नई दिल्ली। देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ करवाने की राह अब आसान हो गई है। एक देश एक चुनाव के प्रस्ताव को आज मोदी कैबिनेट से मंजूरी मिल गई है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी कमेटी की रिपोर्ट के बाद इस प्रस्ताव को कैबिनेट में मंजूरी दी गई है। केन्द्र सरकार शीतकालीन सत्र में यह बिल संसद में लेकर आएगी।
मोदी सरकार पिछले कार्यकाल से ही एक देश एक चुनाव को लेकर गंभीर रही। पीएम मोदी ने कई मौकों पर और चुनावी जनसभाओं में भी वन नेशन वन इलेक्शन की बात कही थी। हाल ही में एनडीए सरकार के 100 दिन पूरे होने पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने वन नेशन वन इलेक्शन के एनडीए के संकल्प को दोहराया था। अब संसद के शीतकालीन सत्र में इस प्रस्ताव पर विधेयक पेश कियाजायेगा।
स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से दिए गए भाषण में वन नेशन-वन इलेक्शन का जिक्र किया था। उन्होंने कहा था कि बार-बार चुनाव देश की प्रगति में बाधा उत्पन्न कर रहा है।
एक देश एक चुनाव के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने इसी साल 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। वन नेशन वन इलेक्शन की यह रिपोर्ट 18 हजार 626 पेज की है।

विश्व के कई देशों ने चुनावों को सुव्यवस्थित करने के लिए एक देश एक चुनाव का मॉडल अपनाया लंबे समय से भारत में बहस का मुद्दा बने ‘एक देश, एक चुनाव’ (One Nation One Election) के प्रस्ताव को बुधवार को केंद्रीय कैबिनेट की मंजूरी मिल गई है। इसका उद्देश्य लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ करना है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि चुनावों में होने वाले वित्तीय खर्चे में कटौती की जा सके। ‘एक देश, एक चुनाव’ के समर्थकों का तर्क है कि यह कदम चुनावी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित कर सकता है, खर्चों को कम कर सकता है और बार-बार चुनावों के कारण होने वाली परेशानियों को कम कर सकता है। हालांकि, आलोचक इसे लेकर कई तरह के सवाल उठाते रहे हैं।

भारत में चुनाव का एक ऐसा चक्र बना हुआ है, जिससे ऐसा लगता है कि देश में चुनाव होते ही रहते हैं। आजादी के बाद से देश में कई चुनाव हुए हैं, जिससे अक्सर संसाधनों और प्रशासनिक मशीनरी पर काफी दबाव पड़ता है। ‘एक देश, एक चुनाव’ की अवधारणा नई नहीं है। जानकारों का मानना है कि यह प्रक्रिया उतनी की पुरानी है जितना हमारा संविधान।

भारत में चार बार हुए हैं एक साथ चुनाव- वर्ष 1950 में गणतंत्र स्थापना के बाद, 1951 से लेकर 1967 के बीच हर पांच साल में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे। देश में मतदाताओं ने साल 1952, 1957, 1962 और 1967 में केंद्र और राज्यों के लिए एक साथ मतदान किया। लेकिन देश में कुछ पुराने राज्यों का पुनर्गठन और नए राज्यों के उभरने के साथ यह प्रक्रिया साल 1968-69 में पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया।

बतादे कि विश्व के कई देशों ने चुनावी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए ‘एक देश, एक चुनाव’ के मॉडल की विविधताओं को अपनाया है।
अमेरिका में राष्ट्रपति, कांग्रेस और सीनेट के लिए चुनाव हर चार साल में एक निश्चित तारीख पर होते हैं। यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि देश में सर्वोच्च कार्यालयों का चुनाव एक साथ कराया जा सके, जिससे एकीकृत चुनावी प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाया जा सके। इस प्रक्रिया में संघीय कानून द्वारा निर्धारित चुनाव की तारीखों का पालन शामिल है, जिससे चुनावी गतिविधियों के राष्ट्रव्यापी समन्वय बना रहे। मतदाता राष्ट्रपति, कांग्रेस के सदस्यों, राज्यपालों, राज्य विधायकों और स्थानीय अधिकारियों सहित विभिन्न संघीय, राज्य और स्थानीय कार्यालयों के लिए अपने मताधिकार का इस्तेमाल करते हैं।
फ्रांस- देश में चुनाव कराने के लिए कुछ इसी तरह का दृष्टिकोण अपनाता है। यहां हर पांच साल में एक साथ राष्ट्रपति और नेशनल असेंबली (संसद का निचला सदन) के लिए चुनाव कराए जाते हैं। यहां मतदाता एक ही मतदान प्रक्रिया के तहत राज्य के प्रमुख और उनके प्रतिनिधियों दोनों का चुनाव करते हैं। फ्रांस में ‘एक देश, एक चुनाव’ की प्रक्रिया के तहत राष्ट्रपति और नेशनल असेंबली के लिए एक निश्चित कार्यकाल तय करना है।
स्वीडन– देश में चुनाव के जिस मॉडल को अपनाता है उसके तहत संसद और स्थानीय सरकार के लिए आम चुनाव हर चार साल में एक साथ आयोजित कराए जाते हैं। वहीं नगरपालिका और काउंटी परिषद चुनाव, राष्ट्रीय चुनावों के साथ होने से मतदाताओं को एक ही दिन में कई चुनावी प्रक्रियाओं में शामिल होने का मौका देती है। इस प्रक्रिया के तहत राष्ट्रीय और स्थानीय विधायिकाओं के कार्यकाल को सिंक्रोनाइज किया जाता है। जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सरकार के विभिन्न स्तरों के चुनाव एक साथ कराए जा सकें। स्वीडन में इस चुनावी प्रक्रिया के चलते चुनावी दक्षता और मतदाताओं की सक्रियता दोनों की ही बढ़ावा मिलता है। साथ ही इस प्रक्रिया से अलग-अलग चुनाव कराने का प्रशासनिक बोझ भी कम होता है।
कनाडा– ‘एक देश, एक चुनाव’ प्रणाली का सख्ती से पालन नहीं करता है। यहां हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए चुनाव हर चार साल में कराए जाते हैं। जो की देश को राष्ट्रीय स्तर पर एक सुसंगत चुनावी ढांचा देता है। इसके अलावा देश के कुछ प्रांत स्थानीय स्तर के चुनावों को संघीय चुनावों के साथ कराते हैं। हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए संघीय चुनाव हर चार साल में होते हैं, जिसमें प्रधानमंत्री निश्चित कार्यकाल के आधार पर या परिस्थितियों के आधार पर चुनाव का आह्वान करते हैं। संसद के सदस्यों को फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली के माध्यम से चुना जाता है, जिसमें प्रत्येक चुनावी प्रांत में सबसे अधिक वोट पाने वाला उम्मीदवार हाउस ऑफ कॉमन्स में एक सीट पर जीत हासिल करता है। प्रांतीय चुनाव प्रत्येक प्रांत के चुनावी कानूनों और प्रथाओं के आधार पर आयोजित किए जाते हैं। जिसमें चुनावी प्रणालियों, चुनाव की तारीखों और मतदान की प्रक्रियाएं अलग-अलग होती है।

भारत में एक देश-एक चुनाव की चुनौतियां- लोकसभा व विधान सभा का कार्यकाल पांच वर्षों का होता है, लेकिन इसे उससे पहले भी भंग किया जा सकता है। अब ऐसे में सरकार के सामने चुनौती होगी कि एक देश-एक चुनाव का क्रम कैसे बरकरार रखा जाए। एक देश-एक चुनाव पर देश के सभी दलों को एक साथ लाना सबसे बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि इस पर सभी पार्टियों के अलग-अलग मत हैं।
ऐसा माना जाता है कि एक देश-एक चुनाव से राष्ट्रीय पार्टी को फायदा पहुंचेगा, लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों को इसका नुकसान होगा।
फिलहाल देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग-अलग होते हैं, जिस वजह से ईवीएम और वीवीपैट की सीमित संख्या हैं, लेकिन अगर एक देश-एक चुनाव होते हैं तो एक साथ इन मशीनों की अधिक मांग होगी, जिसे पूर्ति करना बड़ी चुनौती होगी।
अगर एक साथ चुनाव कराए जाते हैं, तो अतिरिक्त अधिकारियों और सुरक्षाबलों की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में ये भी एक बड़ी चुनौती होंगी।

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